सब कुछ सटीक, सार्थक, करीनेदार और दोषमुक्त हो, आदर्शवाद की परिभाषा काफी हद तक इसके आस-पास ही घूमती है। आदर्श जिंदगी के उस मानचित्र की तरह रेखांकित किया जाता है जहां कमी, ग़लत या गफ़लत की कोई गुंजाइश ही नहीं। यह एक अंदरूनी शक्ति के जागृत होने का संकेत है जो इंसान को बेहतरीन करने के लिए ऊर्जावान बना सकता है। यह एक ऐसे रास्ते पर चलने और उस पर टिके रहने की उत्कंठा भी हो सकती है जो दूसरों को भी वैसा ही होने के लिए प्रेरित भी कर दे और वातावरण को खुशनुमा बयार से भर दे।

 

इस लिहाज़ से आदर्श होने या आदर्श जैसा होने की कोशिश करने में मुझे कोई बुराई नहीं दिखती। किसी भी समाज के लिए इससे आदर्श स्थिति क्या होगी कि उसके समाज में लोग बेहतरीन होने की कोशिश करें और रामराज्य को साकार कर दें लेकिन मजे की बात यह है कि आदर्श की ऐसी तमाम उम्मीदें आम तौर पर महिलाओं से ही की जाती हैं और वे उस पर काफी हद तक खरी भी उतरती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि एक लड़की शुरू से ही भाव के साथ बड़ी होती है कि उसके पास समय कम है, फिर चाहे वो समय उसके बचपन का हो या फिर यौवन का। यही वजह है कि वह धीरे-धीरे आदर्श की पाठशाला-सी बनती चली जाती है। दरअसल औरत की रगों में जो खून बहता है, उसके पैदा होने से ही, वो उसमें आदर्श होने के तत्व को भरे रखता है। औरत की रूल बुक से नियम कटते नहीं बल्कि नए जुड़ते चले जाते हैं। उसके काम कभी खत्म नहीं होते और जिम्मेदारियों की फेहरिस्त कभी छोटी होती नहीं। वह एक काम निपटाती है तो दूसरा किसी नए कोने से उग कर चला आता है। कामों की यह लंबी लिस्ट उसे समय का प्रबंधन, तनाव पर नियंत्रण और बेहतरीन काम करते जाने की सीख देती चलती है। वह मल्टी टास्किंग करने लगती है। एक साथ कई काम पूरे करीने से करने में वह महारत हासिल करती जाती है। यह एक बड़ी कला है। वह उस चींटी की तरह है जो अपने वज़न से कई गुणा ज्यादा बोझ उठाने में सक्षम है।

 

अभी फेसबुक पर एक मैसेज आया है बिहार के सीमावर्ती ज़िले किशनगंज में एक व्यक्ति ने अपनी बेटी का पूरा शरीर सिगरेट से सिर्फ इसलिए दाग़ दिया क्योंकि वह अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने जाना चाहती थी। ऐसी घटनाएं हमारी रोज़मर्रा की कहानियों का हिस्सा हैं लेकिन अब एक बदलाव की लहर उठी है। ऐसी घटनाओं को सोशल नेटवर्किंग साइट्स पुरजोर तरीके से उठाने लगी हैं। जन आंदोलन का माहौल बनने लगा है और आजादी और आदर्श की परिभाषा पर नई और तीखी बहसों की ज़मीन तैयार होने लगी है। यह एक उपलब्धि है। 21वीं सदी के इन 11 सालों ने महिला को एक गज़ब के आत्मविश्वास से भर दिया है। सदियों से तमाम षड्यंत्रों के बावजूद महिलाएं लगातार अपने मुक़ाम तय करती चली गईं हैं और अब वे ऐसे मंच भी बनाने लगी हैं जहां उनकी बात कहीसुनी जा सके। महिलाएं अब रूदन की शैली से बाहर आकर ताकत का पर्याय बनती दिखने लगी हैं। इतने बदलावों के बीच अब अगर आदर्शवाद को लादा भी जाता है तो वह स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए कुछ नियम-कायदे लेकर आएगा, कम-से-कम इसका माहौल तैयार होता तो दिख ही रहा है।

 

यही वजह है कि इस साल महिला दिवस की 100वीं वर्षगांठ पर महिला के अस्तित्व को अपराध बोध से कम और उत्सव के भाव से ज़्यादा मनाया जा रहा है। गली-मोहल्लों तक में इस बार उत्साह है। इस बिगुल का बज जाना क्या कोई छोटी बात है? 

 

(8 मार्च के दैनिक भास्कर के अंक मधुरिमा में प्रकाशित)

 

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