जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में
पठार होंगें
तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी
कहा है छोड़ जाए
आंसू की दो बूंदें भी
जो चिपकी रह गईं थीं
एक पुरानी बिंदी के छोर पर
कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास
वो सूखे हुए से
शादी की साड़ी के साथ पड़े
सूख कर भी भीगे से
वो पुराना फोन भी
जो बरसों बाद भी डायल करता है
सिर्फ तुम्हारा ही नंबर
हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं
कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी
इसके बाद जाना जब तुम
तो आना मत याद
न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए
कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच
सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए
नाकाफी होता है
कोई भी साल
3 Responses
वर्तिका जी,
इस मुक्तछंद कविता में प्रतीकों-बिम्बों की सुन्दर बुनावट ने भावों को अत्यंत संघनित कर दिया है…अभिधा से दूरी बनाकर रखने का सफल ‘प्रयास’…वो भी ऐसा कि ‘प्रयासहीनता’ झलके…अनुस्यूत/अंतर्गुम्फित सुकोमल भावों, पीड़ा के उष्ण-जलकणों का आँखों से रिसाव, और उस रिसाव से बिन्दी का कमोवेश भीगना, पीर के उन ऐकान्तिक पलों का प्रत्यक्षदर्शी तकिया, आदि की उपस्थिति ने मेरी दृष्टि में इस कविता को महत्त्वपूर्ण बना दिया है…बधाई!
साभिवादन-
जितेन्द्र ‘जौहर’
वो पुराना फोन भी
जो बरसों बाद भी डायल करता है
सिर्फ तुम्हारा ही नंबर
itna yaad aana……….achchha laga.!
बहुत अच्छा, कुछ नाम तो दो ।