पानी का उफान तेज था
अंदर भी, बाहर भी
फर्क एक ही था
बाहर का उफान सबको दिखता था
अंदर का पानी अंदर ही बहा
उसे कौन बांधता
न पत्थर, न बांध
अंदर का तूफान
खुद ही थमता है
खुद ही से थमता है
अंदर की आवाज भी
अंदर के कान ही सुनते हैं
वे ही जानते हैं
अंदर के मौसम का हाल
अंदर कभी चरमराहट होती है
कभी अकुलाहट
आहटें अंदर का सच हैं
अंदर अपने कदमों के निशान रोज पड़ते हैं
मिट भी जाते हैं
सिसकियां उठतीं हैं
सो जाती हैं
अंदर की तस्वीर भला कौन सा कैमरा खींचे
खुद का अंतस जानने में भी
गुजर जाते हैं बरसों बरस
अंदर की सुरंगें, गलियां, महल, चौबारे, हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो,जनपथ,राजपथ
कितने टांगे हिनहिनाते हैं रोजमरोज
किसे पकड़ूं, किसे छोड़ूं
ये ख्याली तितलियां हैं
कभी उड़ेंगीं, कभी मीनार बन जाएंगी
क्यों न आज
हंस लिया जाए
इसी ख्याल पर।

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10 Responses

  1. सानिध्य

    आसमान अटा

    पहाड़ी और पेड़ों से

    अनजान,अनगिन चेहरे

    कुछ डरे,कुछ सहमे

    कुछ अड़े से

    एक चेहरा

    तपा हुआ

    सभी चेहरे उसके पीछे

    ठंडी ! बर्फ से भी ठंडी

    रेत, भाप लगती

    धुआं सा पानी से उठता

    लहरदार धुआं

    रेत पर निशाँ

    किसी रेंगने वाले कीड़े के

    वाह ! कुदरती डिजाइन

    फिर हंसी भरे बेफिक्र चेहरे

    काफी कुछ हासिल किये

    रात किसी तलाश में

    सीमाहीन वार्ताएं

    निकटता की चाह

    शिकवा वक़्त से

    दूर हो जाने की

    सच्चाई जानते हुए

    फिर भी अटका है मन

    उस मंज़र में जहां

    प्रकृति के सानिध्य में

    पानी, पहाड़, पेड़,

    पवन सब तो है

  2. अंदर की तस्वीर भला कौन सा कैमरा खींचे
    खुद का अंतस जानने में भी
    गुजर जाते हैं बरसों बरस
    अंदर की सुरंगें, गलियां, महल, चौबारे, हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो,जनपथ,राजपथ
    कितने टांगे हिनहिनाते हैं रोजमरोज
    बहुत प्रभावशाली और वैचारिक कविता। हार्दिक शुभकामनायें।

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