नहीं सुनी बाहर की आवाज
अंदर शोर काफी था
इतना बड़ा संसार
हरे पेड़, सूखे सागर भी
बहुत सी झीलें, चुप्पी साधतीं नदियां
अंदर रौशनी की मेला भी, सुरंगों की गिनती कोई नहीं
अपने कई, अपनेपन से दूर भी
खिलखिलाहटें अंतहीन, नाजुक लकीरें भी
सपने भर-भर छलकते रहे
नहीं समाए अंजुरी में
इस शोर में बड़ी तेज भागी जिंदगी
अंदर का हड़प्पा-मोहनजोदाड़ो
चित्रकार-कलाकार
अंदर इतनी मछलियां, इतनी चिड़िया, इतने घोंसले
बताओ तुमसे बात कब करती
और क्यों?
6 Responses
बहुत मार्मिक कविता।
… बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
अच्छी रचना है।
अंदर इतनी मछलियां, इतनी चिड़िया, इतने घोंसले
बताओ तुमसे बात कब करती
और क्यों?
सवाल जायज है कहीं शोर और भीड़ में बात होती है भला.
सुन्दर रचना
waah Vartika ji maan gaye….sach hai antarman ke shor ko bahar ki awazo se kya matlab…
शोर का बहुत सुन्दर चित्रण. धन्यवाद.