फिजा या चांद से कोई रिश्तेदारी नहीं है और न ही किसी किस्म का कोई व्यापारिक या नौकरीनुमा गठबंधन लेकिन जाने क्यों जब से फिजा की कहानी देखी-सुनी-महसूस की है, कई सवालों ने मन में डेरा जमा लिया है।

कौन है यह फिजा? क्या है और क्यों हैं? फिजा मजाक है, विदूपता है, व्यंग्य है या त्रासदी है? वो अनुराधा बाली है, हिंदू है या फिर फिजा है, मुसलमान है, विवाहित है या फिर बलात्कार की पीडि़त महिला है। वो कौन है? सवाल इतने हैं और जो सवाल सबसे ज्यादा तंग कर रहा है और हर औरत को करना चाहिए कि जो फिजा के साथ हुआ, अगर वही हमारे साथ होता तो क्या होता। असल में मन तो यह करता है कि कोई जादुई छड़ी आ जाए और यह सवाल पुरूषों के दिल पर चिपक जाए। कोई एक रात उनकी जिंदगी में आए जब एकाएक वो कुछ घंटों के लिए फिजा बन जाएं और फिर अपने आस-पास की फिजा को उसकी आंखों और उसी के जैसे धड़कते हुए दिल से महसूस करें।

जैसा मैनें कहा, फिजा या चांद से मेरा कोई संबंध नहीं लेकिन भावनात्मक संबंध स्थापित हो जाना(चाहे वोएकतरफा ही क्यों ने हो) क्या कम होता है। एक अमरीकी फिल्म कंपनी ने अब पेशकश दी है कि अगर फिजा अपनी ‘असली’ कहानी बताने को तैयार हो जाती है तो कंपनी उसे 20 करोड़ रूपए देगी, साथ ही उस पर एक फिल्म बनाई जाएगी। कंपनी का दावा है कि ऐसी स्थिति में फिजा और चांद और चांद और फिजा नाम की इस फिल्म को आगामी लोकसभा चुनाव से पहले रिलीज भी कर दिया जाएगा।
दरअसल शादी के किस्से के बाद से ही फिजा की कई तस्वीरें सामने घुमड़ कर आईं हैं। शादी के बाद प्रेस कांफ्रेंस में अपने धुले-धुले बालों और नेलपालिश लगे हाथों के साथ मुस्कुराहट बिखरेती फिजा, चांद को बेहद प्यार से निहारती हुई, फिर चांद के कथित तौर पर गायब होने पर चिंता दिखाती फिजा, फिर आत्महत्या की कोशिश करने के बाद किसी के कंधे में पड़ी अस्पताल ले जाती हुई फिजा, उसके बाद चांद को 2 दिन में लौट आने की धमकी देती और अब चांद पर शादी के बहाने शारीरिक संबंध बनाने का आरोप लगाती फिजा। ताज्जुब ही है कि भारत जैसे सामाजिक बंधनों में जकड़े देश में शादी के कुछ दिनों में इतना कुछ ऐसे घटा कि जैसे तीन घंटे की फिल्म चल रही हो। पर यह फिल्म अभी खत्म नहीं हुई है। अलग-अलग सिरों पर यह बहस छिड़ गई है कि फिजा कितनी सही या गलत है। यह सवाल तकरीबन फीका पड़ गया है कि चांद के बहाने फिजा कहां से कहां पहुंच गई है।

ब्लाग पर एक पुरूष पत्रकार ने लिखा कि फिजा की नीयत ही ठीक नहीं थी। नीयत सीफ होती तो शादी के कुछ क्षणों बाद ही वह अपने और चांद के बीच के प्रेम भरे एसएमएस यूं ही सबसे साझा नहीं करती। उधर महिलावादियों का एक मोर्चा यह कहकर एकजुट हो रहा है कि पुरूष जब खुद महिला को प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल कर सकता है तो महिला अपनी बात खुलकर क्यों नहीं कह सकती। वह यह भी कह रहा है कि अब पुरूष औरत को बार्बी डॉल नहीं समझता क्योंकि वह तो नाजों से रखी जाती है। अब औरत फैक्ट्री की मशीन बन गई है, वह सेकेंड हेंड कार है जिसे धक्के से शुरू कर धूल के हवाले कर दिया जाता है। वह नाजुक नहीं। वह बनी है -ग्लोब की तमाम जिम्मेदरियों को निभाने और पुरूष की छोड़ी गंदगियों को हटाने। इसलिए इस बार जो हुआ है, उसे भूला नहीं जाना चाहिए।

लेकिन सवाल तो चांद की नीयत पर भी खड़े हो रहे हैं कि शादी के बाद उन्हें एकाएक अपनी पहली पत्नी और बच्चे ऐसी शिद्दत से क्यों याद आने लगे और धर्म परिवर्तन करने से लेकर फिजा को प्यार से निहारने के बीच एकाएक यह गायब हो जाने की नौबत क्यों आ गई। कहा यहां तक जा रहा है कि फिजा जरूर ही चांद को किसी मुद्दे पर ब्लैकमेल कर रही है।

पर इस सबके बीच मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या यह ताज्जुब नहीं कि एक शादी के होने और फिर उसके तकरीबन नाकामयाब होने तक मीडिया ने एक बड़ा समय उसकी कवरेज पर कुछ इस अंदाज में लगाया कि जैसे कोई राष्ट्रीय महत्व की घटना घट गई हो? और यह भी कि क्या अब उस परंपरा की नींव नहीं डाल दी गई है जिसमें पति या पत्नी के बीच विवाद होने पर परिवार की सलाह लेने से ज्यादा आसान एक प्रेस कांफ्रेंस करना होगा? ऐसा भी नहीं है कि मीडिया की मंशा पति-पत्नी के विवाद को सुलझाने की है। बात तो मसाला पाने और उससे टीआरपी की झोली भरने भर की है।

तो निजता की कहानी अब सार्वजनिक होते-होते फिल्मी भी बन गई है। इंटरनेट पर एक ब्लॉगर ने लिखा है कि चांद और मीडिया ने उसके साथ किया है, इसके बावजूद वह उससे शादी करने के लिए तैयार है। तो मामला हाईपर रिएलिटी का है। ऐसे में सोचना होगा कि न्यूज चैनलों का काम फिल्म दिखाना और विवादों को और विवादास्पद बनाने के लिए आइडिया देना है या फिर न्यूज दिखाना है?

(यह लेख 21 फरवरी, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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4 Responses

  1. आपका मेल मुझे २३-१०-०८ को मिला था, तबसे मैंने मीडिया स्कूल पर कई लेख पढ़े हैं। मीडिया के खबर पर आपकी पैनी नजर सराहनीय है,लेकिन लम्बे अरसे तक इसी मीडिया का हिस्सा रहने के बावजूद “मीडिया स्कूल” के सवाल कितने जायज हैं। मतलब कि आप खुद चैनलों के नीति निर्माताओं की टीम शामिल रही हैं और आज भी सुनी पढ़ी जाती हैं। कृपया अन्यथा न लें।

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