उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी

आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर

बाहर आना मुमकिन न था

 

मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता

उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी

आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था

 

उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी

जो शरीर से संवाद  करते थे

 

उन दिनों

सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून

सब अपने थे

उन दिनों जो था

वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है

चाबी मिलती नहीं


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